विशेष : बंगाल में बीजेपी हारकर भी जीत गई और ममता जीतकर भी हार गईं जानिए कैसे ?

न्यूज़ डेस्क। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पूरी ताकत झोंक दी थी इसके बावजूद नतीजे अपेक्षा के मुताबिक नहीं आए। हालांकि बीजेपी का बंगाल की सत्ता में आने का इंतजार और लंबा गया है, लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। राजनीतिक रूप से बंजर जमीन में पार्टी का 25 गुना से ज्यादा विस्तार हो गया है। यह उत्साह भरने के लिए काफी है। इसका श्रेय जाहिर तौर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह, प्रदेश के बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं की कड़ी मशक्कत को जाता है।

कहा जा रहा है कि बीजेपी तो वहां 200 प्लस सीटों का दावा कर रही थी, लेकिन सौ भी नहीं पहुंच पाई। लेकिन जिस बंगाल में पिछली बार सिर्फ तीन विधायक थे वहीं अब बीजेपी एक मजबूत विपक्ष के रूप मे स्थापित हो गई है जहां से वह रोजाना ममता सरकार की उन्हीं नीतियों को कठघरे में खड़ा कर सकती है जो चुनाव में मुद्दे बने थे। यानि अगले पांच साल ममता को हर मोड़ पर प्रदेश के सभी वर्गो के लिए जवाबदेह बनना भी होगा और दिखना भी होगा।

हार के बावजूद विधानसभा में विपक्ष के रूप में बीजेपी की स्थिति बहुत मजबूत है। विपक्षी दल के रूप में बीजेपी की राजनीति देखने वालों को पता है कि इसके क्या मायने हैं? ममता शांत नहीं बैठ पाएंगी और उनपर लगातार भारी दबाव रहेगा। केंद्र में बीजेपी के होने की वजह से बंगाल में विपक्षी बीजेपी के हमले ज्यादा धारदार रहेंगे। और बीजेपी विधायकों के पास केंद्र सरकार की छत्रछाया भी तो होगी।

बीजेपी राज्य की विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल बन गई है। अगर इस बात को ध्यान से देखें कि इस लक्ष्य तक पहुंचने में वामपंथी दलों और खुद TMC को एक लंबा सफर तय करना पड़ा था, यह उपलब्धि कम करके नहीं आंकी जा सकती। पार्टी ने यहां पर 3 सीट से 77 तक पहुंची है।

करीब ढाई दशक से बंगाल की राजनीति तीन ध्रुवीय रही है। एक ध्रुव पर लेफ्ट, दूसरे पर तृणमूल कांग्रेस और तीसरे पर कांग्रेस काबिज रही। बीजेपी का प्रभाव कोलकाता समेत उन शहरी इलाकों में था जहां हिंदी भाषी बड़ी संख्या में थे। समाज में हिंदू-मुस्लिम की बातें तो थीं, मगर यह कम से कम बंगाल के लिए राजनीतिक विषय नहीं था। प्रधानमंत्री मोदी के आने और 2021 के विधानसभा चुनाव में लेफ्ट-कांग्रेस के सफाए के बाद तीन ध्रुवीय राजनीति पूरी तरह से दो ध्रुव में बदल गई है।

अगर राजनीतिक विस्तार के नजरिए से देखा जाए तो बीजेपी ने बड़ी उपलब्धि हासिल की है। लगातार दूसरी बार बहुमत के साथ केंद्र में सरकार बनाने के बावजूद बीजेपी बल्कि पूरा एनडीए राज्यसभा में स्पष्ट बहुमत का आंकड़ा नहीं छू पाया है। बंगाल में बीजेपी ने जो छलांग लगाई है उसके कारण राज्यसभा में भी बहुमत तक पहुंचने का रास्ता आसान होगा। यानि केंद्र की मजबूती बढ़ेगी।

पश्चिम बंगाल में बात की जाए रोजगार, सड़क और अस्पतालों की तो स्थिति बहुत बुरी है। इसको लेकर लोगों में भी नाराजगी है। विधानसभा और उसके बाहर बीजेपी विधायक इन मुद्दों को उठाकर टीएमसी को जनता के कठघरे में खड़ा कर सकते हैं। अब टीएमसी को पहले से ज्यादा जवाबदेह बनना होगा। बीजेपी विधानसभा में अपने संख्या बल से केंद्रीय योजनाओं को लागू करने के लिए टीएमसी सरकार दबाव बना सकती है।

बंगाल में हिंदुत्व पर दूसरी पार्टियों का क्लेम नहीं होने की वजह से बीजेपी को हमेशा एज मिलेगा। भविष्य में जबकि ममता को बीजेपी के साथ ही लेफ्ट और कांग्रेस से भी मोर्चा लेना पड़ेगा। राज्य में लेफ्ट और कांग्रेस का किसी भी स्तर पर मजबूत होना सिर्फ और सिर्फ ममता को नुकसान पहुंचाएगा।

ममता के खिलाफ स्थानीय चेहरा नहीं होने से बीजेपी को नुकसान हुआ। पूरा चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर ही लड़ा गया। उनकी सभाओं में लोगों की भीड़ इस बात का साफ इशारा है। खुद प्रशांत किशोर (ममता के चुनावी रणनीतिकार) ये बात मान चुके हैं कि यहां भी लोकप्रियता के मामले में नरेन्द्र मोदी, ममता बनर्जी से बहुत आगे हैं। टीएमसी चीफ को ये बात परेशान करने वाली है। केंद्र के लिहाज से प्रधानमंत्री मोदी बंगाल में स्वीकार्य बने रहेंगे।

बीजेपी का मजबूत वोटबैंक लगभग उसके साथ बना हुआ है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने करीब 40 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 18 सीटें जीती थीं। विधानसभा चुनाव में पार्टी ने करीब तीन प्रतिशत वोट शेयर गंवाया है। लेकिन बीजेपी के पांव बंगाल में मजबूती से जम गए हैं। बीजेपी के प्रदर्शन में फर्क केंद्र और राज्य की राजनीति की वजह से दिख रहा है। बीजेपी की असल चुनौती इसी फर्क को ख़त्म करना होगा।

सबसे अहम बात ये है कि 2021 विधानसभा चुनाव के साथ पार्टी ने तृणमूल से कई दिग्गजों को अपने साथ जोड़ा। भविष्य में संगठन के स्तर पर बीजेपी को इसका बहुत फायदा मिलेगा। क्योंकि अब बंगाल के चप्पे-चप्पे में संगठन और उसके लोग हैं। बीजेपी का ज्यादा बड़ा विस्तार और नए तगड़े नेताओं की फ़ौज भविष्य में शायद लोकसभा-विधानसभा के फर्क को कम कर सके।

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